ना अब कोई बेरोजगारी पर लिखता है.
ना अब कोई बढ़ती आबादी या घटते संसाधन पर लिखता है.
ना अब कोई भाई -भतीजावाद
पर लिखता है ना भाषावाद पर लिखता है.
ना अब कोई
महिलाओं की
की तरफ हो रहे ज़ुल्म पर लिखता है.
क्या बाजार में अब कलम सोने की और कागज़ रेशम का मिलता है?
शिल्पा रोंघे
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