घूमना जारी था उसका
दिन और रात।
रुक जाए इंसान के कदम
भले ही, मिट्टी की
बनी दुनिया कहां रुकती
है और थकती है।
ये सफर नहीं दो चार
दिन का ये तो कहानी
है करोड़ों सालों की।
चाहे धूप हो या घनघोर अंधेरा
चाहे हो भारी बरसात या
सूखे का डेरा।
भूख और प्यास का अहसास उसे कहां ?
वो तो पेड़ पौधे, फल और
पानी समेटे है
आंचल में अपने ।
जो करती है भरण पोषण
सबका
उसे अपनी सुध ही कहां ?
शिल्पा रोंघे
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