Friday, August 2, 2019

फ़िक्शन की दुनिया

एक अलग ही दुनिया होती है,
मनभावन सुंगध होती है,
शब्दों के पुष्पों की, जो पिरोये जाते है
कल्पनाशीलता के धागे में.
ले जाते है जो स्वप्नलोक में
किसी और ही दुनिया में
कुछ क्षणों के लिए,
भूलने को कर देते है
विवश कल, आज और कल
की चिंता.
कहते है लोग दीवारों भी सुनती है,
फिर कागज कहां निशब्द रहने वाले हैं
वो भी सुनते हैं, लिखने से पहले
और बहुत कुछ कह जाते है बोलने से पहले,
कागज, कलम, दवात की जुगलबंदी
कभी आसमान पर उड़ान भरती है,
तैरती है पानी पर तो कभी नृत्य करती है
धरा पर.
अदृश्य सी हवा की तरह
छूकर चली जाती है मन को.

शिल्पा रोंघे

No comments:

Post a Comment

मेघा

देख रहे हैं राह, बचे-खुचे कुछ जंगल। अब तो निमंत्रण स्वीकार कर। सूख रही हैं नदियाँ और ताल, फिर से बह कर कहीं दूर निकल चल। मेघा, बरस  फिर से, ...