ज्यादतर पुरुषों को
सहने और कुछ
ना कहने वाली औरतें ही
भाती है।
राहों में उनकी वो फूल बिछाते है।
अपने हक की बात
उठाने वाली को
तो शूल ही मिलते है।
लेकिन डटी रहिए।
धूल के बिना पौधे
का और शूल के
बिना गुलाब के फूल
का अस्तित्व ही क्या ?
मैंने पत्थरों पर
अंकुर फूटते देखा है।
शिल्पा रोंघे
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