थोड़ी थोड़ी पशुता हर मनुष्य
में होती है।
जो कि संस्कार तो कभी आत्मनियंत्रण
से सोई रहती है।
जब जाग जाती है तो
मानव को पशु से भी बदतर
बना देती है।
मानवियता की सारी
सीमाओं का उल्लंघन कर डालती है।
शिल्पा रोंघे
I like to write Hindi poetry in comprehensive language, which try to depict different situation and state of mind of human beings. All Rights reserved ©Shilpa Ronghe
थोड़ी थोड़ी पशुता हर मनुष्य
में होती है।
जो कि संस्कार तो कभी आत्मनियंत्रण
से सोई रहती है।
जब जाग जाती है तो
मानव को पशु से भी बदतर
बना देती है।
मानवियता की सारी
सीमाओं का उल्लंघन कर डालती है।
शिल्पा रोंघे
ये मायने नहीं रखता कि किसी का अतीत कैसा है।
महत्वपूर्ण ये है कि वर्तमान में उसका बर्ताव कैसा है।
शिल्पा रोंघे
जो इंसान सोने के पिंजरे में रहने के बजाए जोख़िम लेना पसंद करता है
अक्सर वो कईयों को खलता है।
कोई मंदी की बात करता है तो कोई तंगी की
एक मायूसी सी देख रही हूं मैं नौजवान पीढ़ी में,
एक इंसान की शिकायत हो तो चलो मान
ले झूठ इसे, पर ये कहानी तो आज
हर दूसरा शख़्स कह रहा है।
तय है इतना उम्मीद की किरण
अब अपने अंदर ही ढूंढनी होगी।
कितनी ही हो काली रात
काटनी तो पड़ेगी ही
सुबह के इंतज़ार में।
शिल्पा रोंघे
ज्यादतर पुरुषों को
सहने और कुछ
ना कहने वाली औरतें ही
भाती है।
राहों में उनकी वो फूल बिछाते है।
अपने हक की बात
उठाने वाली को
तो शूल ही मिलते है।
लेकिन डटी रहिए।
धूल के बिना पौधे
का और शूल के
बिना गुलाब के फूल
का अस्तित्व ही क्या ?
मैंने पत्थरों पर
अंकुर फूटते देखा है।
शिल्पा रोंघे
लाईक और शेयर,
होड़ और दौड़
में पड़कर
वर्चुअल अस्तित्व
बचाने की
बजाए खुद
से रिश्ता
जोड़े रखे तो
होगा बेहतर,
सबसे बदतर
होता है
खुद को ही
पहचान ना पाना।
शिल्पा रोंघे
चांद पर रखो कदम या
आसमान को छू लो,
चाहे दुनिया
में सबसे ज्यादा
खुद को ज़ुदा मान लो।
लेकिन खुद को
ख़ुदा मत मान लो।
शिल्पा रोंघे
हर फूल पर मंडराना
भंवरे की फ़ितरत है।
क्या फूल समझे इसे ये
मोहब्बत है
या सिर्फ एक आदत है।
या फिर पराग और
पखुंड़ियों की
इकतरफ़ा इबादत है।
शिल्पा रोंघे
क्योंकि ख़ुशियां संक्रामक होती है.......
पूरी दुनिया को ख़ुश रखना सबके लिए मुमकिन नहीं।
लेकिन खुद की ख़ुशी चुनना स्वार्थ नहीं।
हर किसी के नसीब में नहीं होती रोशनी।
यूं नहीं पत्थरों की रगड़ से पैदा हुई चिंगारी।
ज़रुरत ही खोजने को मजबूर कर देती है उसे
जिसे नामुमकिन समझते थे सभी।
शिल्पा रोंघे
देख रहे हैं राह, बचे-खुचे कुछ जंगल। अब तो निमंत्रण स्वीकार कर। सूख रही हैं नदियाँ और ताल, फिर से बह कर कहीं दूर निकल चल। मेघा, बरस फिर से, ...