बेगाने की तरह,
मुसाफ़िर की तरह,
अंजान की तरह,
पता पूछते है वो हमसे,
कि जैसे हम ही बनाते
हो नक्शा दिल की मंजिल
का.
ना जाने कहां से निकलता
है उनकी चाहतों का रास्ता
इसी कश्मकश में हूं, क्या
मैं भी हूं हमराही
भूला भटका सा उनके
सफ़र का ?
शिल्पा रोंघे
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