ना जाने कैसी ये भूलभुलैया
है, ना जाने कैसा ये भटकाव
है.
कदमों की आहटें सुनाई देती है,
लेकिन छाप है कि दिखती नहीं.
बंधन नहीं है पैरों में लेकिन
कैसी ये जंजीर है जो महसूस होती
नहीं.
मंजिल का नक्शा तो
है लेकिन उस तक जाने
की बेताबी अब नहीं,
तय हो चुका है मीलों
का सफर फिर भी
लौट जाने की तमन्ना
फिर दिल के दरिया
में उफ़ान बन कर उठ
रही.
शिल्पा रोंघे
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