Thursday, March 26, 2020

दो जून की रोटी


उनके लिए कहां मुमकिन था कैद हो जाना घरों में जान बचाने के लिए।
वो तो निकल पड़े पैदल ही मीलों के सफ़र पर दो जून की रोटी के लिए।

शिल्पा रोंघे

No comments:

Post a Comment

मेघा

देख रहे हैं राह, बचे-खुचे कुछ जंगल। अब तो निमंत्रण स्वीकार कर। सूख रही हैं नदियाँ और ताल, फिर से बह कर कहीं दूर निकल चल। मेघा, बरस  फिर से, ...