Saturday, April 21, 2018

साइकिल दिलाओं मां

फिर नई साइकिल खरीदने को मन है करता.
जो स्कूल छोड़ने के बाद बन चुकी है किसी
कबाड़ का हिस्सा.

दो पहियों पर चलती
हवा को चीरती साइकिल
बन गई है बचपन की यादों का किस्सा.

उंची नीची, कच्ची  सड़कों पर
कभी स्कूल की ओर तो कभी खेल के मैदानों की तरफ़
दौड़ती साइकिल आज भी है ज़हन में जिंदा.

नहीं चाहिए दौलत और शोहरत मुझे,
हो सके तो एक बार फिर मुझे एक नई
साइकिल दिला देना मां.

जिसकी ट्रिंग ट्रिंग की आवाज को
बहुत मुश्किल लगता है भूलना.
हां कर दो ख्वाहिश पूरी ये मेरी.
फिर पिछली सीट पर मैं तुम्हें भी
बिठा लुंगी मां.

शिल्पा रोंघे

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