बहुत भागदौड़ भरी है जिंदगी.
बहुत धूप है राहों में.
कंकड़ पत्थर भी चुभते है पैरों में.
हां इसी आपा धापी के बीच
भूल गए, सब एक बाग आज
भी तनकर है खड़ा हरे भरे पेड़ों
को लेकर.
कोलाहल और धुएं से दूर
कभी वहां का रुख कर लेना.
प्रकृति अपना वात्सल्य
उड़ेले बगैर कहां रह सकती है भला.
उसकी गोद से बेहतर सुकून कोई कहां है
दे सका ?
कवियों ने तो कभी चित्रकारों ने उसे
मां का दर्जा यूं ही नहीं दिया.
शिल्पा रोंघे
बहुत धूप है राहों में.
कंकड़ पत्थर भी चुभते है पैरों में.
हां इसी आपा धापी के बीच
भूल गए, सब एक बाग आज
भी तनकर है खड़ा हरे भरे पेड़ों
को लेकर.
कोलाहल और धुएं से दूर
कभी वहां का रुख कर लेना.
प्रकृति अपना वात्सल्य
उड़ेले बगैर कहां रह सकती है भला.
उसकी गोद से बेहतर सुकून कोई कहां है
दे सका ?
कवियों ने तो कभी चित्रकारों ने उसे
मां का दर्जा यूं ही नहीं दिया.
शिल्पा रोंघे
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