वाट्स एप, फेसबुक मैसेंजर, स्काइप, और ना जाने क्या क्या,
इनमें ज़माना दिखता है तेज
मगर है बहुत पीछे.
क्योंकि हल्दी और मसालों
के हाथों का रंग नहीं
होता उसमें.
डायरी में सिमटे हुए गुलाबों
की पंखुड़ियों
की खुशबू नहीं होती उसमें.
जिसके बीच रखा था कागज़
कोई बड़े ही करीने से.
नहीं दिखते है अब वो नीले नीले
से स्याही के धब्बें, जो गलती से
फैल गए थे.
कोरे कागज़ पर लफ़्जों
की कारीगरी अब नहीं
दिखती.
हां बातों का दौर लंबा
हो चला है और संदेश
भी अनगिनत हो गए है.
गिने चुने लफ्ज़ों में
जो ज़ज्बात बयां
होते थे,
वो बेहिसाब
हो गए,
कभी बनावटी तो
कभी बोझिल
से लगते है.
तो वहीं घर के एक कोने में
में रखे है जो पुराने खत संभाल के
वो किसी विरासत से कम नहीं
लगते है.
शिल्पा रोंघे
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