हमने तो उन्हें इश्क का मसीहा समझा
और उन्होंने हमें कोरा कागज.
कभी मोड़कर कश्ती बना दिया
तब बरसाती पानी को भी समझ के दरिया पार हमने कर लिया.
कभी आधा अधूरा खत समझकर
बिना पते के ही भेज दिया, तो
बंजारे सी ज़िंदगी को ही नसीब
समझ लिया.
जो थी मर्ज़ी उनकी, फ़रिश्ता मानकर
कबूल कर लिया.
ताज कांटों का था या फूलों का
ख़ुशी ख़ुशी पहन लिया.
शिल्पा रोंघे
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