तुमसे बनीं दीवारों को कूलर पंखों की ज़रुरत
नहीं होती,
तुम पर चलने वाले पैरों को दवा की ज़रुरत क्यों
होगी,
तुम पर उगने वाले पेड़ पौधों को भरण पोषण के
बारे
में सोचने की ज़रुरत क्या होगी।
हे धरती मां अंबर और सागर
चादर ओढ़े हुए तुम,
तुम्हारी ममता की छांव से
ज्यादा इक इंसान की ज़रुरत क्या होगी।
शिल्पा रोंघे
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