Tuesday, May 29, 2018

कहां गए वो दिन

एक चिड़िया बचपन में घर आती थी.
जहां मिलता कोना वहां घरौंदा बनाती थी.
ना जाने कहां वो चहचहाट खो गई.

अमरूद का पेड़ था बाग में.
जिसकी जड़ें घर आंगन तक आ पहुंची थी.
कई मधुमख्खियां उस पर मिल जुलकर
छत्ते बनाती और शहद भरती थी.
ना जाने वो मिठास कहां गई.

खेलते थे विशाल मैदानों में बच्चे
तो गेंद घर की चौखट तो कभी
छत पर आ धमकती थी.
हां पुराने नक्शों में सिमट गए है वो मैदान अब.

हुआ करते थे गहरे भरे हुए कुएं, जल से लबालब
नन्हे कछुए तैरते थे उसमें तब.
हां अब सूखे की कहानी कहते पत्थरों के गढ्ढे
बन चुके है वो अब.

सोचते है अब क्या सचमुच ऐसे शहर में रहते
थे हम.
क्या प्रकृति की बजाए मशीनों की गोद में पले
बढ़े है हम ?

शिल्पा रोंघे

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