नारी की आत्मा की आवाज
थक गई हूं मैं भी अपेक्षाओं के बोझ ढोकर.
कभी बेटी होकर
पाबंदियों में जकड़कर.
कभी मां बनकर
बच्चों की ना खत्म होने वाली फरमाइशें सुनकर.
कभी बहू बनकर
मर्यादा की सीमा में बंधकर.
कभी पत्नी बनकर
पति की आज्ञा का पालन कर.
तो कभी बहन बनकर
भाई -बहन की देखभाल की जिम्मा लेकर.
तो कभी पहुंचते ही कार्यालय में नारी की
कमजोरियों से जुड़े ताने सुनकर.
कभी रिश्तों में उलझकर, तो कभी बेगानों
की बिन बुलाई सलाहों को सुनकर.
कुछ पल के लिए मुझे भी भूल जाने दो
कि मैं नारी हूं.
कभी देखो मुझे सिर्फ अपनी तरह
इंसान समझकर.
शिल्पा रोंघे
थक गई हूं मैं भी अपेक्षाओं के बोझ ढोकर.
कभी बेटी होकर
पाबंदियों में जकड़कर.
कभी मां बनकर
बच्चों की ना खत्म होने वाली फरमाइशें सुनकर.
कभी बहू बनकर
मर्यादा की सीमा में बंधकर.
कभी पत्नी बनकर
पति की आज्ञा का पालन कर.
तो कभी बहन बनकर
भाई -बहन की देखभाल की जिम्मा लेकर.
तो कभी पहुंचते ही कार्यालय में नारी की
कमजोरियों से जुड़े ताने सुनकर.
कभी रिश्तों में उलझकर, तो कभी बेगानों
की बिन बुलाई सलाहों को सुनकर.
कुछ पल के लिए मुझे भी भूल जाने दो
कि मैं नारी हूं.
कभी देखो मुझे सिर्फ अपनी तरह
इंसान समझकर.
शिल्पा रोंघे
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