गुनाह करो तब डरो
प्रेम करो तब नहीं,
जहां डर शुरू हुआ वहां प्रेम ख़त्म,
जहां प्रेम शुरू हुआ वहां डर खत्म,
ना किसी को डराकर प्रेम करवाया जा
सकता है.
ना किसी को डराकर प्रेम ख़त्म करवाया जा
सकता है.
ये वो अंकुर है जो कि पनपता है खुद ब खुद ही
जिसे जरूरत है समर्पण से
बनीं खाद की.
वफ़ा से बनीं धूप की.
और त्याग से बनीं फूहार की.
कुछ इस तरह का पेड़ लगाकर तो देखो
ना कोई जड़ से उखाड़ पाएगा ना कोई
उसे काट पाएगा.
प्रेम करो तब नहीं,
जहां डर शुरू हुआ वहां प्रेम ख़त्म,
जहां प्रेम शुरू हुआ वहां डर खत्म,
ना किसी को डराकर प्रेम करवाया जा
सकता है.
ना किसी को डराकर प्रेम ख़त्म करवाया जा
सकता है.
ये वो अंकुर है जो कि पनपता है खुद ब खुद ही
जिसे जरूरत है समर्पण से
बनीं खाद की.
वफ़ा से बनीं धूप की.
और त्याग से बनीं फूहार की.
कुछ इस तरह का पेड़ लगाकर तो देखो
ना कोई जड़ से उखाड़ पाएगा ना कोई
उसे काट पाएगा.
गर कोई ऐसे पेड़ की कलम भी कोई
कहीं और लगाएगा तो प्रेम के पुष्पों
को खिलाता हुआ पाएगा.
कहीं और लगाएगा तो प्रेम के पुष्पों
को खिलाता हुआ पाएगा.
शिल्पा रोंघे
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