बार- बार चोट खाते
है
गिरते है और लड़खड़ाते
है फिर भी कदम
उन गलियों
की तरफ
मुड़ जाते है
जहां कभी
रहता था तू
वो पुरानी
मीनार तो
चुपचाप
खड़ी है
काली चाक
से गुदा
था जिस
दीवार पे तूने
मेरा नाम वो
तेरी दीवानगी
की गवाही
दे रही है...
वो शहर का
बागान
जहां
तूने जो लगाई
थी
गुलाब की
कलम
वो फूलों से
सजी डाली
बन चुकी है..
जिस मंदिर
की दीवार
पर बांधा
था जो धागा
उसका रंग
कब का उड़
चुका है
लेकिन तेरी
मन्नत की
निशानी बन
गया है
जो मांगी
थी तूने
कभी मुझे
पाने के लिए....
समंदर किनारे
जो बनाया था रेत का
महल तूने जो
मेरे लिए
वो कब का
ढ़ह चुका
है....
पर लहरे
भी चुप कहा
रहने वाली थी
मेरे पैरो से
टकरा रही
थी
कह रही थी
महल तो
अब रहा नहीं
पर शायद
वो रेत अब
भी थी
पानी में घुली
हुई ...
शायद मेरे
पैरे को छूने
की कोशिश
कर थी रही
बरगद के पेड़
पर जो
लगाए
थे सावन
में जो झूले
उस पर आज
हम अकेले ही
झूले...
दुनिया की
नज़र से
बचाने के
लिए
डाला था
ताबीज
तूने मेरे
गले में
वो अब
काला
पड़ चुका
है
जिसे रखे
हुए है
हम अब
तक संभाले..
मेरी घनी
चोटी
में लगाया
था
जो गजरा
तूने कभी
वो सूख
चुका है
पर पुरानी
डायरी में
मैनें बंद
करके रखा है
जब पलटती हूं
पन्नों को तो
तेरे प्यार की
खुशबू अब
भी महसूस
करती हूं.....
तुम तो भूल
गए हो शायद
पर इसे तेरी
मजबूरी कहूं
या बेरुखी
कहूं
समझ नहीं पाती
शायद
इन निशानियों
के बहाने ही सही
काश मैं तुमसे
रूबरू हो पाती
शिल्पा रोंघे
है
गिरते है और लड़खड़ाते
है फिर भी कदम
उन गलियों
की तरफ
मुड़ जाते है
जहां कभी
रहता था तू
वो पुरानी
मीनार तो
चुपचाप
खड़ी है
काली चाक
से गुदा
था जिस
दीवार पे तूने
मेरा नाम वो
तेरी दीवानगी
की गवाही
दे रही है...
वो शहर का
बागान
जहां
तूने जो लगाई
थी
गुलाब की
कलम
वो फूलों से
सजी डाली
बन चुकी है..
जिस मंदिर
की दीवार
पर बांधा
था जो धागा
उसका रंग
कब का उड़
चुका है
लेकिन तेरी
मन्नत की
निशानी बन
गया है
जो मांगी
थी तूने
कभी मुझे
पाने के लिए....
समंदर किनारे
जो बनाया था रेत का
महल तूने जो
मेरे लिए
वो कब का
ढ़ह चुका
है....
पर लहरे
भी चुप कहा
रहने वाली थी
मेरे पैरो से
टकरा रही
थी
कह रही थी
महल तो
अब रहा नहीं
पर शायद
वो रेत अब
भी थी
पानी में घुली
हुई ...
शायद मेरे
पैरे को छूने
की कोशिश
कर थी रही
बरगद के पेड़
पर जो
लगाए
थे सावन
में जो झूले
उस पर आज
हम अकेले ही
झूले...
दुनिया की
नज़र से
बचाने के
लिए
डाला था
ताबीज
तूने मेरे
गले में
वो अब
काला
पड़ चुका
है
जिसे रखे
हुए है
हम अब
तक संभाले..
मेरी घनी
चोटी
में लगाया
था
जो गजरा
तूने कभी
वो सूख
चुका है
पर पुरानी
डायरी में
मैनें बंद
करके रखा है
जब पलटती हूं
पन्नों को तो
तेरे प्यार की
खुशबू अब
भी महसूस
करती हूं.....
तुम तो भूल
गए हो शायद
पर इसे तेरी
मजबूरी कहूं
या बेरुखी
कहूं
समझ नहीं पाती
शायद
इन निशानियों
के बहाने ही सही
काश मैं तुमसे
रूबरू हो पाती
शिल्पा रोंघे
Very deeply romantic.
ReplyDeletePlease visit my blog, I write in English iliveandlong.com
Happy to connect with someone who feels and writes as deeply as me.