Thursday, June 2, 2016

हवा भी ना जाने कितनी करवटें बदलती है

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ये हवा भी ना जाने कितनी करवटें बदलती है 
हर मौसम का अलग है मिज़ाज
हर बार इस हवा का अलग है अंदाज़
गर्मी की दोपहर में लू बनकर मनमानी करती है
माथें से टपकटे पसीनें में घुलमिल जाती
है.

तो रातों में चलकर बदन को यूं छू जाती
है कि दिनभर की थकान में सुकुन सा दे जाती है.

सर्दी के मौसम में शीतलहर बन जाती है
पूरे बदन में एक ठिठुरन सी दे जाती है.

रातों में बंद दरवाजों को खटखटाती है
खिड़की के कोनो से अंदर आने की
कोशिश में रहती है.

तूफ़ान बनकर आने वाली बरसात का
संदेश लाती है.

उंचे-उंचे पेड़ो के पत्तों से गुजरते
हुए खड़खड़ाती आवाज़
पैदा करती है.

कभी बागानों में टहल कर
तो देखों.

फूलों की खुशबू से मिलकर
चारों दिशाए महकाती है
कभी रातों में छत पर जाकर
तो देखो.

मां की ममता सी पीठ
सहलाती है
ये हवा भी ना जाने कितनी करवटें
बदलती है.
शिल्पा रोंघे

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