मुखौटे हर बार नज़र नहीं आते हैं.
मुखौटे खरीदे नहीं जाते.
मुखौटे बाज़ार में नहीं मिलते हैं.
मुखौटे इंसान ही लगा लेता हैं.
खुद ही कभी स्वार्थ का, तो कभी
लालच का, तो कभी बेईमानी का
गर नकली हो मुखौटा तो पहचान भी लें कोई,
गर शख़्सियत का हिस्सा ही बन जाए मुखौटा तो
भला कोई उसकी पहचान करें भी तो कैसे.
क्यों ना हम भी खरीद लें कोई मुखौटा
क्यों ना मुखौटे की मुखौटे से ही हो जाए मुलाकात
ना उन्हें शिकायत रहें ना हमें शिकायत रहें.
शिल्पा रोंघे
मुखौटे खरीदे नहीं जाते.
मुखौटे बाज़ार में नहीं मिलते हैं.
मुखौटे इंसान ही लगा लेता हैं.
खुद ही कभी स्वार्थ का, तो कभी
लालच का, तो कभी बेईमानी का
गर नकली हो मुखौटा तो पहचान भी लें कोई,
गर शख़्सियत का हिस्सा ही बन जाए मुखौटा तो
भला कोई उसकी पहचान करें भी तो कैसे.
क्यों ना हम भी खरीद लें कोई मुखौटा
क्यों ना मुखौटे की मुखौटे से ही हो जाए मुलाकात
ना उन्हें शिकायत रहें ना हमें शिकायत रहें.
शिल्पा रोंघे
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